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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

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अथ तृतीयोऽध्यायः



अर्जुन उवाच


ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।


अर्जुन बोले - हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?।।1।।

अर्जुन के किंकर्त्व्यविमूढ़ हो जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण उसे संक्षेप में मानव जीवन में मन और बुद्धि तथा अन्य मानवों के साथ संबंध होने के कारण बारम्बार उपस्थित होने वाली मानसिक समस्याओं की रूपरेखा समझाते हैं। परंतु मनुष्य के विकास के क्रम के विषय में बताते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को यह स्पष्ट करते हैं कि कर्मों को ही सर्वस्व मानने की अपेक्षाकृत ज्ञान का अन्वेषण करना अधिक श्रेष्ठ है। हम जानते हैं कि अर्जुन इस अवस्था में पहुँचे ही इस कारण हैं क्योंकि इस समय जो कर्म उनसे अपेक्षित है, उससे प्रियजनों की हानि तो है ही बल्कि उनकी मृत्यु भी अवश्यंभावी है। भगवान् श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर कि कर्म की अपेक्षा ज्ञान अधिक श्रेष्ठ है, उन्हें लगता है कि यह एक अच्छा उपाय है, जिससे उन्हें युद्ध करने का कर्म भी नहीं करना पड़ेगा और ज्ञान की साधना अधिक श्रेष्ठ कार्य होने के कारण उन्हें अच्छा फल भी दे सकेगी। मूल बात यह है कि वे इस ज्ञान साधना के पीछे छुपना चाहते हैं। अर्जुन भीरु व्यक्ति नहीं है। उन्होंने इससे पहले भी युद्ध लड़े हैं। क्षत्रिय व्यक्ति तो वैसे भी अपनी हानि अथवा मृत्यु से भय नहीं करता। अर्जुन जानते हैं कि आने वाले युद्ध में उनसे न जाने कितने महान योद्धाओं की क्षति होने वाली है। इसलिए वे अपने लिए नहीं बल्कि अन्य प्रियजनों के लिए इस कर्म से विमुख होना चाहते हैं।

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